आजकल बिहार बहुत व्यस्त है। उसके पास बहुत कुछ सोचने के लिए है। तमाम गणितों में वह उलझा है। अभी-अभी सरकार का रूप बदला है। इससे जितने चिंतित सरकार में शामिल होने वाले या सरकार से बाहर होने वाले नहीं हैं, उससे ज्यादा चिंता बाकी लोगों को है जिनका इसमें कोई योगदान नहीं। लेकिन चूंकि मनुष्य दिमाग वाला सामाजिक प्राणी है, इसलिए सोचना और चिंतित होना उसका धर्म है और जब सोचने वाले मौके सामने आएं तो वह क्यों नहीं व्यस्त होगा? चिंतन उसका सबसे प्रिय विषय है, इसलिए उसे चिंता है।
नीतीश-तेजस्वी की जोड़ी खुद के भविष्य को लेकर भले ही आशान्वित हो, पर चिंतकों के पास सवालों की झड़ी है। सवाल छूटते हैं कि राजद के सरकार में शामिल होने के बाद कानून व्यवस्था चौपट हो जाएगी? यादव सबको डराने लगेंगे। नीतीश जी छह महीने के लिए मुख्यमंत्री रहेंगे या साल भर तक? केंद्र अब बिहार पर ध्यान नहीं देगा, क्योंकि अब सरकार डबल इंजन से सिंगल इंजन की हो गई है। इसलिए केंद्र का पैसा बिहार आना बंद हो जाएगा? उद्योग के क्षेत्र में बहुत काम हो रहा था, अब सब खत्म हो जाएगा? शराब को लेकर भी बहुत चिंता है। खुलेगी या नहीं, चिंता का सबसे बड़ा विषय है। मंत्री कौन बन रहा है और किसका पत्ता कट रहा है? विधानसभा अध्यक्ष विजय सिन्हा त्यागपत्र देंगे या उन्हें हटाने की प्रक्रिया होगी? नीतीश गद्दी छोड़कर यदि प्रधानमंत्री की रेस में शामिल होंगे तो संपूर्ण विपक्ष साथ आएगा कि नहीं? कोई कहता है कि ममता नहीं मानेंगी, तो कोई कांग्रेस को रोड़ा बताता है। नीतीश को भाजपा को नहीं छोड़ना चाहिए था। नीतीश कुमार को कुर्सी का मोह है। वह पलटूराम हैं। नहीं, वह दूर का सोचते हैं, उनके सोच को जाना नहीं जा सकता।
ऐसे तमाम सवाल आजकल मुखों से निकल कर वायुमंडल में तैर रहे हैं। भाजपा को लेकर भी चिंता हो रही है कि भाजपा तो अब अकेले रह गई। अगली बार एंटी इन्कंबेंसी उसे पूरा बहुमत दिलवा देगी? नहीं, जातिगत समीकरण ऐसे हैं कि भाजपा लोकसभा में भी निपटेगी और विधानसभा में भी। नीतीश-राजद भारी पड़ेंगे। इस सवाल के तत्काल बाद काट भी आती है। भाजपा अब पिछड़ों व दलितों में पैठ बनाएगी! आरसीपी सिंह जो जदयू के दुश्मन बन गए हैं, भाजपा उनकी पीठ पर हाथ रखेगी और कुर्मी वोटों में सेंध लगाएगी। मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी भले ही अभी नीतीश के साथ दिख रहे हों, चुनाव के समय महागठबंधन में उनकी दाल नहीं गलने वाली, क्योंकि राजद, जदयू, कांग्रेस और भाकपा, माकपा के होने से इन्हें देने के लिए सीट ही नहीं होगी उनके पास। ऐसे में भाजपा के पास आना मजबूरी होगी। भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है मुख्ममंत्री पद के लिए, ऐसे में वह आगे कैसे बढ़ेगी? किनारे किए गए चेहरे पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी, पूर्व मंत्री नंद किशोर यादव और प्रेम कुमार को फिर आगे लाएगी भाजपा? रविशंकर प्रसाद और सुशील मोदी से तो अब प्रेस ब्री¨फग कराना शुरू कर दिया गया है। नहीं, अब ऐसा नहीं करेगी भाजपा, वह दूसरी पंक्ति के नेताओं से लड़ाका चेहरे खोजेगी।
ऐसे ही अनगिनत सवाल, जितने मुख उतनी जिज्ञासाएं और सामने से उतने ही समाधान। जो बातें अभी राजनीतिक दल भी नहीं सोच पाए हैं। उन सब पर जनता की नजर है। उसके अपने सवाल हैं और अपने अनुसार ही उसके जवाब भी हैं। हर चौक-चौराहे पर यही चर्चा जारी है। शराब पर तो लगभग सभी की सहमति है कि नहीं खुलेगी। तेजस्वी पर भरोसा है कि वह राजद के लड़ाकाओं को थाम लेंगे। लोग सरकार का बदला चेहरा भाजपा के लिए अनुकूल अवसर भी मान रहे हैं कि अब भाजपा अपना आधार बढ़ा लेगी। बहरहाल वर्तमान व भविष्य में उलझे लोगों के बीच प्रदेश अपनी उसी रफ्तार से आगे बढ़ रहा है जो समय ने नियत कर रखा है। जिसमें किसी सरकार का कोई योगदान नहीं। सत्ता की होड़ में विकास मायने नहीं रखता और कौन सा विकास चाहिए? सबकुछ ठीक तो है। सब बेहतर चल रहा है।