सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहनेवाले ही नहीं बल्कि सबसे ज्यादा बार शपथ लेनेवाले सीएम भी हैं नीतीश कुमार (Nitish Kumar)। 22 वर्षों में आठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। आठ बार मुख्यमंत्री पद की शपथों के बीच में पांच साल का एक पूर्ण कार्यकाल भी रहा है। स्वर्गीय जे. जयललिता ने 25 साल में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के तौर पर छह बार शपथ ली थीं। 22 साल के दौरान नीतीश लगभग 16 वर्षों तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे (15 वर्ष 353 दिन)। इस दौरान उन्होंने तीन बार अपने गठबंधन सहयोगियों की अदला-बदली की, जिसमें दो बार उनकी पार्टी जेडीयू सत्तारूढ़ गठबंधन में जूनियर पार्टनर रही। ये तीसरी बार है, जब नीतीश अपनी पार्टी के साथ जूनियर पार्टनर के रूप में बिहार के सीएम बने हैं।
पार्टियां बदलती रहीं, मगर नीतीश की कुर्सी नहीं बदली
राजनीतिक चालबाजी को आसानी से अंजाम देने की उनकी आदत पर लालू प्रसाद यादव ने उन्हें ‘पलटू राम’ समेत कई उपनामों से नवाजा था। कभी समाजवादी आंदोलन का झंडा उठानेवाले लालू यादव चारा घोटाले में सजायाफ्ता हैं। इस बार नीतीश ने लालू के राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ साझेदारी की है। उनके बेटे तेजस्वी यादव ने दूसरी बार डेप्युटी सीएम के रूप में शपथ ली।
बिहार विधानसभा में नंबर गेम की वजह से नीतीश कुमार हमेशा अपनी कुर्सी बचाए रखे। यू-टर्न मारते रहे और हर उथल-पुथल में अपने ओहदे को संभाले रखे। 17 साल में पार्टियां बदलती रही मगर नीतीश कुमार जस के तस बने रहे। मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी को मजबूती से टिकाए रखने के लिए नीतीश ने अच्छा से काम किया। लेकिन इन 17 सालों में बिहार के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता। जिस तरह से नीतीश ने अपनी कुर्सी को संभाला, वैसे अगर बिहार को संभाले होते तो आज हालात थोड़ा बेहतर जरूर हुआ होता।
1994 में लालू यादव से अलग हो गए नीतीश कुमार
इंदिरा गांधी की कांग्रेस शासन काल में नीतीश-लालू नेता के रूप में उभरे। जनता आंदोलन का उभार जितनी तेजी से हुआ, उतनी ही तेजी से पतन। इससे निकले लालू यादव दलितों और पिछड़ों की आवाज बने। 1989-90 में एक और आंदोलन ने केंद्र और कई राज्यों में राजीव गांधी की कांग्रेस को तहस-नहस कर दिया। लालू यादव बिहार का सीएम बने, तब नीतीश उनके भरोसेमंद सहयोगी थे।
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1990 में मुख्यमंत्री के रूप में लालू यादव ने पहली शपथ ली। इसके दो साल बाद ही लालू के तेवर बदलने लगे। वे ‘तानाशाही तरीकों’ से बात करने लगे। नतीजा रहा कि दोनों नेताओं के बीच बातचीत बंद हो गई। दो साल में ही जनता दल (जेडी) के 31 सांसदों में से 14 ने लालू के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उन्होंने अनुभवी समाजवादी जॉर्ज फर्नांडिस को अपना नेता बताया और जनता दल (जॉर्ज) के तौर पर पहचान बना ली। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि फर्नांडिस को विद्रोह का चेहरा बनाया गया था, ये सबकुछ नीतीश कुमार कर रहे थे। 1994 में विद्रोह को अंजाम दिया गया और समता पार्टी के रूप में संगठित किया।
बीजेपी के समर्थन से पहली बार सीएम बने नीतीश
बाद के दिनों में नीतीश ने लालू के शासन को ‘जंगल राज’ करार दिया। लालू राज के खिलाफ जोरदार अभियान शुरू किया। पूरी तरह से अराजकता की छवि वाले राज्य की इमेज बनाई गई। ये छवि हमेशा के लिए लालू परिवार से जुड़ी हुई है। कथित ‘जंगल राज’ के खिलाफ ये अभियान था। नीतीश 2005 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने। अपने तत्कालीन गुजरात समकक्ष नरेंद्र मोदी के उदय तक गठबंधन में रहे। बीजेपी ने जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया तो मामला खटक गया।
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जब ये स्पष्ट हो गया कि मोदी 2014 के लिए भाजपा के पीएम उम्मीदवार होंगे तो नीतीश ने जून 2013 में 17 साल का नाता तोड़ दिया। लेकिन यह एकमात्र समय था, जब बिहार विधानसभा में उनकी पार्टी जदयू के पास बहुमत था। 243 सदस्यों वाली सदन में नीतीश के पास 118 विधायक थे। तब नीतीश ने कहा था कि हम अपने बुनियादी सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकते। हम परिणामों के बारे में चिंतित नहीं हैं। जब तक गठबंधन बिहार केंद्रित था, तब तक कोई समस्या नहीं थी। लेकिन अब हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हम जिम्मेदार नहीं हैं। मजबूर होकर हमें यह फैसला लेना पड़ा। कुछ महीने बाद सितंबर में नीतीश ने मोदी का जिक्र करते हुए कहा कि देश की जनता ऐसे नेता को बर्दाश्त या स्वीकार नहीं करेगी, जिसके विचार और नीति विभाजनकारी हो। बीजेपी को नीतीश ने कहा कि विनाश काले विपरित बुद्धि यानी बर्बादी के वक्त बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
नीतीश ने एक बार फिर छोड़ा लालू यादव का साथ
2014 के लोकसभा चुनावों में नीतीश को रियलिटी से सामना हुआ। 40 में से सिर्फ दो सीटों पर उनकी पार्टी को कामयाबी मिली। उन्होंने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के लिए लालू से हाथ मिलाया। नीतीश के साथ गठबंधन करने पर लालू ने एक रैली में कहा कि नीतीश मेरे गोड़ (पैर) में गिर गए तो क्या हम उन्हें उठाकर फेंक देते? बाद में लालू ने कहा कि उन्होंने गोड़ नहीं God (भगवान) शब्द का इस्तेमाल किया था, न कि गोड़ (पैर) का। 2015 बिहार विधानसभा चुनाव रिजल्ट में नीतीश कुमार आरजेडी के जूनियर पार्टनर के तौर पर उभरे। हालांकि उन्होंने मुख्यमंत्री पद को बरकरार रखा। लेकिन लालू ने नीतीश कुमार को उनकी इमेज से समझौता करा दिया था। तब तक लालू के चुनाव लड़ने पर रोक लग चुकी थी।
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सत्ता में आते ही कथित तौर पर लालू यादव सीनियर नौकरशाहों की बैठकें बुलाने लगे। नीतीश कुमार इससे नाराज हो गए। सरकार में लालू के बेटे तेजस्वी यादव डेप्युटी सीएम थे। 2017 के मध्य तक आते-आते नीतीश के पास गठबंधन तोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। उसी दरम्यान तेजस्वी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों ने आग में घी का काम किया। उन्होंने इसी नाम पर आरजेडी से गठबंधन तोड़कर नरेंद्र मोदी की पार्टी बीजेपी से हाथ मिला लिया, जो भारत के प्रधानमंत्री बन चुके थे। जबकि नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही बीजेपी से गठबंधन तोड़ा था। नीतीश ने कहा था कि वो भ्रष्टाचार से समझौता नहीं कर सकते।
बीजेपी से नाता तोड़ एक बार फिर लालू के पाले में नीतीश
आरजेडी के साथ महागठबंधन में नीतीश कुमार की पार्टी जूनियर पार्टनर के तौर पर थी। लेकिन बीजेपी के साथ आने के साथ ही वो बिहार एनडीए में सीनियर हिस्सेदार बन गए। भाजपा ने अगले संसदीय चुनाव को ध्यान में रखते हुए नीतीश को दिलासा भी दिया। 2019 में नीतीश के उम्मीदवारों को एडजस्ट करने के लिए अपने सांसदों का टिकट भी काट दिया। दोनों दलों का स्ट्राइक रेट भी काफी बेहतर रहा।
नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ 2015 में चुनाव जीता था लेकिन जूनियर पार्टनर थे। तब राजद ने उन पर हावी होने की कोशिश की थी। 2020 चुनाव के बाद भाजपा ने उनके अधिकार को कम करने की कोशिश की। दो साल से भी कम समय में नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और अपने समाजवादी प्रतिद्वंद्वी-सह-सहयोगी राजद में फिर से शामिल हो गए। इस बार, उन्होंने कहा कि भाजपा ने उनका अपमान किया और उनकी पार्टी को उसी तरह तोड़ने की कोशिश की, जिस तरह से उन्होंने कथित तौर पर महाराष्ट्र की शिवसेना को तोड़ा था। एक राजनीतिक खेमे से दूसरे राजनीतिक खेमे में उछल-कूद ने नीतीश कुमार के लिए अच्छा काम किया। जिससे चलते वो आराम से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे। लेकिन क्या बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल ने समान रूप से अच्छा काम किया है? ये बड़ा सवाल है।
नीतीश जिसे ‘जंगल राज’ कहते थे उसका आंकड़ा देखिए
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के साथ राजद शासन के अंतिम वर्ष में दर्ज कुछ अपराधों की डेटा बानगी है। 2004 में मर्डर के कुल 3,861 केस दर्ज हुए जबकि 2020 में 3,150। बलात्कार से जुड़े मामलों की बात करें तो 2020 में 1,244 केस दर्ज हुए जबकि 2004 में 806। राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) ने दिसंबर में अपराध का डेटा जारी किया है। जिसमें कहा गया है कि साल (2020) के पहले नौ महीनों में बलात्कार के 1,106 मामले दर्ज किए गए। अपहरण से जुड़े मामलों की बात करें तो 2020 में 7889 मामले दर्ज हुए जबकि 2004 में 2,566 थे। एनसीआरबी रेकॉर्ड कहता है कि बिहार में एटीएम धोखाधड़ी (688), संपत्ति विवाद (4,838), पुलिस पर हमले (77), सामान्य दंगे (9,422) से संबंधित अपराधों में सबसे ऊपर है। सांप्रदायिक/धार्मिक दंगे (177) और 2,619 मामलों के साथ महिलाओं के खिलाफ अपराधों में दूसरे स्थान पर रहा।
लालू शासन के दौरान बिहार को शैक्षिक रूप से पिछड़ा माना जाता था। मगर उसके बाद भी नीति आयोग के शिक्षा-सूचकांक में बिहार को लगातार नीचे से दूसरे स्थान पर रखा गया है। इसी तरह, स्वास्थ्य सेवा में भी बिहार सबसे निचले पायदान पर है। नीति आयोग के सूचकांक में राज्य की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली ने नकारात्मक वृद्धि दर्ज की है, 2015-16 से 2020-21 तक लगभग सात प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। अपनी राजनीतिक अनिश्चितता और खराब परफॉर्मेंस के बावजूद नीतीश ने एक ऐसे राज्य में मिस्टर क्लीन छवि को बनाए रखा। जिसकी राजनीति भ्रष्टाचार से प्रभावित रही है।
नीतीश का सीएम बने रहने का राज़ TINA फैक्टर
बिहार में तीन प्रमुख दल हैं- राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड)। राजद के पास एक नेता है (लालू ने सफलतापूर्वक अपने छोटे बेटे तेजस्वी को कमान सौंपी है) और एक जनाधार है। इसका यादव-मुस्लिम वोट बैंक व्यापक रूप से बरकरार है। बीजेपी विरोधी वोट भी इंटैक्ट है। बिहार में बीजेपी ने जनाधार तो बना लिया है, लेकिन चेहरे (लीडरशिप) की कमी से जूझ रही है। इसका सबसे अच्छा दांव सुशील मोदी थे, जिन्होंने अपनी और अपनी पार्टी के भले के लिए बहुत लंबे समय तक नीतीश के लिए पार्टनर की भूमिका निभाई। इसलिए, ये चुनावों में एक वरिष्ठ भागीदार के रूप में उभरते हैं। मगर दूसरी पंक्ति नेता उतने सफल नहीं हैं।
नीतीश एकमात्र अखिल बिहार चेहरा हैं, लेकिन घटते राजनीतिक आधार के साथ। चुनाव परिणामों के अनुसार, बिहार चुनाव में उनका राजनीतिक दबदबा 12 वर्षों से कम होता जा रहा है। नीतीश बिना गाड़ी के बिहार के ‘पॉलिटिकल ट्रक’ का एकमात्र एक्सपर्ट ड्राइवर हैं। असली वाहन मालिक- भाजपा या राजद है। मगर नीतीश ने पाया कि ये दोनों पार्टियां उनके ‘पॉलिटिकल ट्रक’ को अपने समय और सड़कों की पसंद के अनुसार चलाने के लिए तैयार हैं। जब भी उन्हें कोई रुकावट या गाड़ी के टूटने का सामना करना पड़ता है, तो वो उसे दूसरी ‘गाड़ी’ से बदल देते हैं। इस ‘टीना फैक्टर’ (TINA- There is no alternative) ने नीतीश को वो दिया है, जो वे हमेशा से चाहते थे- उनके नाम के साथ पता, 1 अणे मार्ग, पटना, जुड़ा रहे।