Home बिहार के अखबारों में

कोरोना से पहले मजदूर थे, अब करोड़पति: बिहार का चनपटिया बना स्टार्टअप हब, 57 कंपनियां और 50 करोड़ टर्नओवर

एक जगह, जो पहली नजर में देखने पर सालों पुरानी किसी खंडहर की तरह दिखाई देती है, लेकिन अंदर जाने पर दर्जनों ब्लू शेड दिखाई देती है और उसमें सुनाई देती है बड़ी-बड़ी मशीनों के चलने की आवाज। किसी शेड में स्टील की सीट को काटकर कटोरी, गमला, लंच बॉक्स जैसे दर्जनों बर्तन की मैन्युफैक्चरिंग हो रही है।

तो दूसरे शेड में साड़ी, लहंगा, जींस, टी शर्ट, शर्ट, यूनिफॉर्म समेत 30 से ज्यादा प्रोडक्ट्स तैयार किए जा रहे हैं। इसी से सटे एक और शेड में प्लास्टिक की बाल्टी, डस्टबीन, फुटवियर जैसे कई प्रोडक्ट्स की मैन्युफैक्चरिंग हो रही है।

ये नजारा सूरत, पुणे, दिल्ली जैसे किसी बड़े शहर का नहीं, बिहार की राजधानी पटना से 216 किलोमीटर दूर पश्चिम चंपारण (बेतिया) के चनपटिया का है। इस ब्लॉक की आबादी करीब 3 लाख है। पूरा इलाका गांव-देहात, लेकिन अब यह स्टार्टअप जोन के नाम से जाना जा रहा।

चनपटिया की पुरानी बाजार समिति एरिया के दर्जनों बिल्डिंग सालों से जर्जर हालत में पड़े थे, उसी के कुछ बिल्डिंग्स को 2020 में स्टार्टअप हब में तब्दील किया गया।

दरअसल, जब लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों में काम करने वाले बिहार के मजदूर अपने गांव वापस लौटे, तो इन्हें 14 दिनों के लिए क्वरैंटाइन​​​​​​ सेंटर में रखा गया। इसी दौरान पश्चिम चंपारण के डीएम कुंदन कुमार की पहल पर मजदूरों की स्किल मैंपिंग हुई और इसी के साथ चनपटिया के स्टार्टअप जोन में बदलने की कहानी भी शुरू हो गई।

चनपटिया स्टार्टअप जोन पहुंचने पर हमारी मुलाकात अर्चना और उनके पति नंदकिशोर कुशवाहा से हुई। ये भी घर लौटे उन लाखों मजदूरों में से एक हैं और अब अपनी कंपनी ‘अर्चना क्रिएशन’ के मालिक हैं। इनकी फैक्ट्री में साड़ी पर कढ़ाई का काम होता है जिसका सालाना टर्नओवर करीब 2 करोड़ है।

अर्चना बताती हैं, हमलोग क्वरैंटाइन सेंटर में थे। जब डीएम सर से बातचीत हुई, हमने उन्हें अपने काम के बारे में बताया। उन्होंने कहा, ‘यदि सारी सुविधाएं यहां पर मिल जाए, तो क्या फिर भी दूसरे राज्यों में जाकर कमाने की जरूरत होगी?’ हमने कहा नहीं।

नंदकिशोर पिछले 20 साल से सूरत में हैंडलूम इंडस्ट्री की मशीनें बनाने का काम कर रहे थे। वो कहते हैं- 2000 में गरीबी की वजह से पढ़ाई छोड़कर सूरत कमाने के लिए जाना पड़ा। कोई काम नहीं जानने की वजह से कई महीने ठोकर खाता रहा। कड़ी मशक्कत के बाद साड़ी फैक्ट्री में काम मिला।

एक टाइम खाना खाकर 12-12 घंटे मजदूरी करनी पड़ती थी। फिर धीरे-धीरे मैंने साड़ी बनाने के पूरे प्रोसेस और मार्केटिंग को सीख लिया। इसके बाद भी मुझे बहुत कम पैसे मिलते थे।

नंदकिशोर अपनी दुकान में साड़ियां और कपड़ों के बीच खड़े हैं। वे कहते हैं कि ये सारे प्रोडक्ट स्थानीय कारीगरों ने ही तैयार किया है।

नंदकिशोर कहते हैं, अकेले जॉब करने से घर चलाना मुश्किल था, इसलिए पत्नी को भी जॉब करने के लिए समझाने लगा। इसमें भी डेढ़ साल लग गए। मैं जिस फैक्ट्री में मशीन बनाने का काम करता था, उसी में वो भी काम करने लगी।

जब लॉकडाउन में सबकुछ बंद हो गया, तो जिनके साथ हम 20 साल से काम कर रहे थे, उन्होंने भी सपोर्ट करने से इनकार कर दिया और हमें गांव लौटना पड़ा।

नंदकिशोर गारमेंट्स फैक्ट्री शुरू करने के दिनों को याद कर हंसने लगते हैं। कहते हैं, 2020 का जून महीना बीत रहा था, जब डीएम की पहल पर एक जानने वाले ने फैक्ट्री सेटअप करने के लिए कॉल किया, तो मुझे लगा कि कोई मजाक कर रहा है।

मैंने उनसे कहा, कोरोना में खाने के लिए तो कोई पूछ नहीं रहा है, फैक्ट्री की बात करना तो सपने देखने जैसा है। कभी सोचा नहीं था कि हम मजदूरी करने वाले मालिक बनेंगे। नवपरिवर्तन योजना के तहत बैंक से 25 लाख का लोन मिला, लेकिन एक मजदूर के माथे इतना बड़ा कर्ज…। हमारे लिए चिंता की बात थी।

इसी एरिया में आनंद कुमार की स्टील की बर्तन बनाने की फैक्ट्री भी है। वो पिछले 22 साल से दिल्ली के वजीरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में बर्तन बनाने का काम करते थे, लेकिन जनवरी 2021 में उन्होंने अपना पूरा कारोबार चनपटिया में शिफ्ट कर लिया।

यहां वापस आने के सवाल पर आनंद कहते हैं, कोरोना के दौरान एक करोड़ से ज्यादा रुपए डूब गए। कोई पैसा नहीं दे रहा था। सभी मजदूर घर चले गए, तो प्रोडक्शन बंद करना पड़ा।

जब चनपटिया स्टार्टअप जोन के बारे में पता चला, तो हमने भी डीएम से बातचीत के बाद जमीन अलॉट करवाई और मैन्युफैक्चरिंग यूनिट यहां शिफ्ट कर लिया। कौन नहीं चाहता है कि अपने गांव में रहे…

आनंद 8 साल की उम्र में ही घर से भागकर दिल्ली मजदूरी करने चले गए थे। फिर वहीं पर चाचा के साथ बर्तन बनाने का काम सीखा। वो बताते हैं, मैंने एक-दो साल नौकरी भी की थी, लेकिन मालिक से झगड़ा होने के बाद ठान लिया कि अब अपना काम ही करूंगा।

1996 में किसी तरह से 35 हजार रुपए जमाकर अपनी फैक्ट्री लगाई। काम सीखने के लिए बर्तन बनाने वाली दूसरी फैक्ट्रियों में कई महीनों तक बर्तन ढोने का काम किया।

कोरोना से पहले दिल्ली में आनंद की फैक्ट्री का सालाना टर्नओवर 12 करोड़ था।

वो कहते हैं, जब चनपटिया में फैक्ट्री लगाई, तो घरवालों ने कहा- ‘पागल हो गया है। गांव में कौन फैक्ट्री लगाता है।’ आज हमें थोक में ऑर्डर मिल रहे हैं। हर महीने 25 टन की सप्लाई है। प्रोडक्ट के हिसाब से गोलाकार स्टील की सीट दिल्ली से मंगवाता हूं। यहां पर इसकी कटिंग और फिर पॉलिश के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश जिलों में बर्तन की सप्लाई होती है।

अभी हमारे साथ 25 लोगों की टीम काम कर रही है।

आनंद की ही फैक्ट्री में कटोरी बनाने की मशीन पर उमेश यादव काम कर रहे हैं। मशीन की रफ्तार को थोड़ा धीमा करते हुए वो कहते हैं, 15 साल से दिल्ली में स्टील के बर्तन बनाने वाली अलग-अलग कंपनियों में काम कर रहे थे, लेकिन अपने गांव में स्टार्टअप शुरू होने के बाद हम जैसे सैकड़ों लोग दिल्ली, सूरत, लुधियाना से वापस लौटकर यहां काम कर रहे हैं।

उमेश अपने दर्द को बयां करते हैं, बिहार से जाने वाली सभी ट्रेनें मजदूरों से सालों भर खचाखच भरी होती है, ये तो आपने देखा ही होगा।

घर में कोई अनहोनी हो जाए, तो भी हम नहीं आ पाते थे। मैं दिल्ली में जहां रहता था, वहां पानी की सबसे ज्यादा दिक्कतें थीं। एक कमरे में घुट-घुटकर रहना पड़ता था।

गांव में बिजनेस सेटअप करने में दिक्कतें नहीं आई? इस सवाल के जवाब में आनंद कहते हैं, जो प्रोडक्ट हम दिल्ली में बनाकर बिहार और उत्तर प्रदेश भेजते थे, वो अब यहीं से सप्लाई कर रहे हैं। कस्टमर के ट्रांसपोर्ट कॉस्ट में कमी आ गई है। हालांकि, अर्चना समेत उन दर्जनों स्टार्टअप्स ओनर्स को मार्केटिंग में दिक्कतें आई, जिन्होंने पहली बार बिजनेस शुरू किया था।

अर्चना के पति नंदकिशोर बताते हैं, 6-7 महीने तक तो प्रोडक्ट को कोई पूछने वाला ही नहीं था। बेतिया के दुकानदार भी उसे नहीं खरीदना चाहते थे। कहते थे, ‘नए हो। अच्छा प्रोडक्ट नहीं बन रहा है। हम नहीं खरीदेंगे।’ 10 लाख की साड़ियां-लहंगे स्टोर में पड़े थे।

उसके बाद हमने छोटे-छोटे दुकानदारों को टारगेट करना शुरू किया। उन्हें दो पीस, चार पीस प्रोडक्ट पहुंचाने लगे। धीरे-धीरे लोग ट्रस्ट करने लगे। अब गोरखपुर, बनारस, दार्जलिंग, कोलकाता, बिहार के अलग-अलग जिलों में हम सप्लाई कर रहे हैं।

अब तो इतने ऑर्डर्स आ जाते हैं कि हमें इसे पेंडिंग में रखना पड़ता है। सालाना 3 गुना मार्केट ग्रोथ हो रहा है, जिसमें 10% नेट प्रॉफिट है। 45 लोगों की टीम अभी काम कर रही है।

यहीं पर हमारी मुलाकात ओम प्रकाश से होती है, जो इस स्टार्टअप जोन के अध्यक्ष हैं। साथ में उन्होंने साड़ी बनाने की फैक्ट्री भी लगा रखी है। वो बताते हैं, मैं खुद लुधियाना में पावर लूम मशीन बनाने और इसे विदेशों से इंपोर्ट करने का काम करता था। (पावर लूम से साड़ी की बुनाई की जाती है।)

जब यहां एक साथ कई स्टार्टअप शुरू किए गए, तो मुझे भी डीएम साहब की तरफ से बुलाया गया। मैंने भी सोचा कि बहुत हो गया परदेस में कमाना, गांव में रोजगार है, तो यहीं काम किया जाए।

चनपटिया स्टार्टअप जोन से निकलने के बाद हम जिलाधिकारी कुंदन कुमार से मिलते हैं। वो बताते हैं, क्वरैंटाइन सेंटर्स में रहने वाले लोगों की स्किल मैंपिंग के दौरान पता चला कि ये लोग तो अलग-अलग मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में हाइली स्किल्ड हैं। जो लोग अपने स्किल्ड के मुताबिक स्टार्टअप शुरू करना चाह रहे थे, हमने उन्हें एक-एक ऑफिसर प्रोवाइड करवाया।

डीएम कुंदन का कहना है कि हम अब पूरे पश्चिम चंपारण को स्टार्टअप हब बनाने की प्लानिंग पर काम कर रहे हैं।

वे कहते हैं, बैंक और एंटरप्रेन्योर्स के साथ कई मीटिंग के बाद हमने चनपटिया में सालों से खाली पड़े वेयरहाउस के एक हिस्से को स्टार्टअप जोन में कंवर्ट कर दिया। अब बड़ी कंपनियों को इनवाइट कर रहे हैं, जिससे प्रोडक्ट की ज्यादा-से-ज्यादा सप्लाई हो पाए। कुछ दिन पहले ही बैंक ने 10 करोड़ से अधिक का लोन दिया है।

अभी 150 के करीब स्टार्टअप वेटिंग लिस्ट में हैं। दिलचस्प है कि जहां से ये लोग आए थे, अब वहां पर प्रोडक्ट की सप्लाई कर रहे हैं। साथ ही ये अपना प्रोडक्ट स्पेन, मलेशिया में भी एक्सपोर्ट कर रहे हैं।

Source link

हिन्दी
Exit mobile version