अविभाजित बिहार के कई सियासी किस्से ऐसे हैं। जिनसे आज की पीढ़ी बिल्कुल भी परिचित नहीं है। कुछ ऐसे ही रोचक सियासी किस्सों का गुच्छा है। स्व. रमणिका गुप्ता की लिखी आत्मकथा ‘आपहुदरी’-एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा। इसमें स्व. रमणिका गुप्ता ने अपने पारिवारिक जीवन का जिक्र किया है। जवानी के दिनों के संघर्ष और राजनीति में सक्रिय होने की छटपटाहट की चर्चा की है। आत्मकथा बहुत ही बोल्ड है। बिंदास है। लेखिका ने परद-दर-परत राजनीतिक किस्सों को रोचकता के साथ दुनिया के सामने रखा है। जीवन भर अपने लिये संवेदना की तलाश में सियासी गलियारों में भटकती रहीं रमणिका गुप्ता ने बेहद बेदर्द समाज के किस्सों को किताब में उकेरा है। कहते हैं कि आत्मकथा सच्चाई और बेबाकी के साथ लिखना बड़ी बहादुरी का काम होता है। ‘आपहुदरी’ को पढ़कर पता चलता है कि सच्चाई के साथ डंटकर खड़े रहने वाली बहादुरी किसे कहते हैं।
एक बिंदास आत्मकथा
स्व. रमणिका गुप्ता ने ‘आपहुदरी’ में अपनी पहली सियासी ट्रेन यात्रा की रोचकता के साथ चर्चा की है। रमणिका को बिहार के राज्यमंत्री की ओर से झूठ बोलकर दिल्ली ले जाया जाता है। उनसे कहा जाता है कि केंद्र सरकार की एक कमेटी में उनको मेंबर बना दिया गया है। जिसके चेयरमैन वे खुद हैं। मंत्री अचानक एक दिन रमणिका गुप्ता के घर पहुंचते हैं। कहते हैं कि वे दिल्ली जा रहे हैं। कमेटी की बैठक है। तुमको भी चलना है क्या ? रमणिका उनसे बताती हैं कि उन्हें तो ऐसी कोई चिट्ठी नहीं आई है। उसके बाद मंत्री कहते हैं कि मैं ही चेयरमैन हूं। मैं तुम्हें चिट्ठी दे देता हूं। मैं साथ हूं, तो फिर चिट्ठी की क्या जरूरत है। रमणिका दिल्ली जाने के लिए तैयार हो जाती हैं। मंत्री और बिहार के एक और नेता रमणिका के साथ फर्स्ट क्लास के कूपे में बैठते हैं। अचानक मंत्रीजी रमणिका के साथ प्रेम प्रदर्शन शुरू कर देते हैं।
‘ट्रेन में मंत्री पढ़ाने लगे राजनीति’
रमणिका अपनी आत्मकथा में कहती हैं कि मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं। ट्रेन से कूदा तो नहीं जा सकता था। वे एक नहीं दो थे। उसके बाद वे दोनों नेता उन्हें रास्ते भर सियासी पाठ पढ़ाने के बहाने प्रेमालाप करते हैं। दिल्ली पहुंचने के बाद बिहार भवन में ठहरते हैं। रोज सुबह रमणिका मंत्री से पूछती हैं कि बैठक कब होगी? बैठक नहीं होती है। क्योंकि, असल में ऐसी कोई बैठक होती नहीं। जब रमणिका दिल्ली से लौटने लगती हैं। वे रास्ते में मंत्री से पूछती हैं कि मीटिंग तो हुई नहीं, हम लौट रहे हैं। मंत्री कहते हैं कि अरे मीटिंग तो की ना हम तीनों ने, क्या दरकार है किसी और की। रमणिका गुप्ता इस घटना के बाद खिन्न हो जाती हैं। अपने साथ हुई इस घटना का एक दो जगह जिक्र करती हैं। उसके बाद वे इसे राजनीति का विद्रूप चेहरा मानकर भूल जाती हैं।
‘मुख्यमंत्री ने मुझे आमंत्रण भेजा’
एक बार कवि सम्मेलन में बिहार के मुख्यमंत्री केबी सहाय की ओर से रमणिका गुप्ता को आमंत्रित किया जाता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में चर्चा की है कि जैसा कि होता है, मुख्यमंत्री के आमंत्रण के बाद धनबाद के गॉडफादर कहे जाने वाले नेताओं में हड़कंप मच जाता है। मुख्यमंत्री का आमंत्रण पाकर वे पटना जाती हैं। पटना में मुख्यमंत्री से मुलाकात से पहले वे अपने मन के अंदर चल रहे मानसिक द्वंद को भी शब्द देती हैं। वे लिखती हैं कि ‘राजनीति में आने वाली औरतों के लिए जोखिम के खिलाफ एक सुरक्षा-कवच की भी जरूरत होती है’। वे अपनी आत्मकथा में जिक्र करते हुए कहती हैं- केबी सहाय सवेरे चार बजे उठकर फाइल देखते थे। उसी समय अपने खास मिलने वालों को बुलाते थे। जिनमें औरतें भी शामिल होती थीं। छह बजे के लगभग वे सैर को निकलते थे। रास्ते में भी पैरवीकार उनसे बातें करते चलते थे। वे मुख्यमंत्री के पुराने निवास में ही रहते थे, जहां पहले बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री रहा करते थे। कभी-कभी गंभीर राजनीतिक वार्ताएं भी उसी सैर के दौरान वे किया करते थे।
‘मैं पटना जाकर मुख्यमंत्री से मिली’
रमणिका गुप्ता ने अपनी मुख्यमंत्री से अपनी मुलाकात का हूबहू जिक्र करते हुए लिखा है- मैं सवेरे चार बजे मिलने वालों की सूची में थी। मैं गई। फाइलों से सिर उठाकर उन्होंने सराहना भरी नजर से मुझे देखा। ‘तुम्हारा प्रोग्राम तो बहुत अच्छा था’, कहते हुए वे उठे। मैं खड़ी थी। उनका पीए जा चुका था। मेरी तरफ आते हुए वे हाथ फैला कर बोले, ‘बोलो क्या चाहिए ? बिहार का मुख्यमंत्री तुमसे कह रहा है। मैं स्तब्ध थी। अचानक मुंह से निकला, ‘महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए भवन बनाने के लिए धनबाद में कांग्रेस ऑफिस के बगल वाली जमीन चाहिए।’ ‘अरजी लाई हो ? मैंने कहा- जी। उन्होंने अर्जी लेकर जमीन आवंटन की प्रक्रिया पूरी करने का आदेश जिला-परिषद के मंत्री को लिख दिया, जो एक आदिवासी थे।
मुख्यमंत्री ने जब मुझे चूम लिया
उसके बाद मुख्यमंत्री केबी सहाय रमणिका गुप्ता को एक पत्र देते हुए कहते हैं- जाओ ये पत्र लेकर राजा बाबू से मिलो। वे तुम्हें बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी का सदस्य मनोनीत कर देंगे। तुम कांग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत ही लिया है। ये कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चूम लिया। मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद मैंने विरोध करना नहीं चाहा। रमणिका आगे लिखती हैं। ऐसे भी क्षण आते हैं जीवन में, जब अचानक, अनअपेक्षित लादे गए अहसानों का अहसास किसी भी ऐसी हरकत को नजरअंदाज करने में सहायक बन जाता है। राजनीति में ऐसे ही अहसानों में कमी आने पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल जाता है। रमणिका गुप्ता सियासत में महिलाओं और नेताओं के रिश्ते पर बेबाक टिप्पणी करते हुए कहती हैं- तनावग्रस्त राजनेता महिला कार्यकर्ताओं से शारीरिक सुख पाकर तनाव-मुक्त होने को अहसान के रूप में लेता है। बदले में राजनीतिक महिलाएं सुरक्षा और वर्चस्व के फैसले अपने पक्ष में हासिल करती हैं।
सियासत में महिलाएं
रमणिका गुप्ता ने खुलकर वैसे महिलाओं के लिए भी लिखा है, जो सिर्फ राजनीति में पैसे या भौतिक उपहारों से संतुष्ट हो जाती हैं। पुरुषों की तरह ही ट्रांसफर-पोस्टिंग से कमाई करती हैं। उन्होंने साफ लिखा है कि महिलाओं को इन कामों में उनके पति मदद करते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि मुख्यमंत्री की ओर से जो उनके साथ किया गया- वह मेरा शोषण था,तो शायद यह गलतबयानी होगी। उन्होंने स्पष्ट किया है कि राजनीतिक सीढि़यों पर चढ़ने वाले हर व्यक्ति को, औरत हो या मर्द, सुरक्षा-कवच चुनने होते हैं। मुझे मुख्यमंत्री का सुरक्षा कवच मिल रहा था। शायद ये ज्यादा भरोसेमंद था। छदम् नैतिकता से! ये मुझे राज्यमंत्री लोकेश झा या दिलीप जैसे दरिंदों के हाथ में पड़ जाने से बेहतर लग रहा था। इसमें स्नेह भी झलकता था। वे आगे लिखती हैं- हो सकता है इसमें दोनों को एक-दूसरे का फायदा नज़र आता था। लेकिन ये बिल्कुल व्यापार नहीं होता। कुछ न कुछ लगाव भी रहता है।
‘सहमति से बने संबंध को प्रेम कह सकते हैं’
उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ हुई मुलाकात के प्रसंग को पाठकों से कुछ इस तरह भी साझा किया है। उन्होंने कहा कि इसे समझौता भी कह सकते हैं। पर समझौता किससे ? इसे मंत्रमुग्धता की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं। जब कोई औरत या पुरुष किसी ऐसे व्यक्तित्व की प्रेमाभिव्यक्ति से अपने को गौरवान्वित समझे। वे इस मुलाकात को कुछ इस तरह भी देखती हैं। वे आगे कहती हैं कि सभ्यता का पूरा इतिहास ऐसे समझौतों, विरोधों और गौरवानुभूतियों या अपराधबोध का दस्तावेज़ है। मातृसत्ता की समाप्ति के बाद से औरतों की पूरी जिंदगी इन समझौतों के स्वीकार करने और नकारने की ही रही है। ऐसे संबंध, जहां कोई उन्हें सरल-सुलभ प्राप्य वस्तु मानने लगे तो उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचती है। तब वे उसे नकारती हैं। पर सहमति से बने संबंध को प्रेम भी कह सकते हैं। भले समाज उन्हें व्यभिचार की श्रेणी में रखता है। असहमति जरूर बलात्कार बन जाती है।