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मठ-मंदिर और बिहार में कानून

बिहार सरकार की एक मुनादी इन दिनों चिंता और चर्चा में है। अब यहां के हिन्दू मठों और मंदिरों को अपनी आय का 4 फीसद वार्षिक कर देना होगा। वहीं भूमि और कोष का भी हिसाब देना अनिवार्य होगा। बदले में सरकार इनके मठ मंदिर को अपने धार्मिक न्यास बोर्ड की वेबसाइट पर स्थान देगी जबकि मंदिर मठ के बेहतर संचालन हेतु भविष्य में अपने प्रतिनिधि भी दे सकती है। असली खेल यहीं है कि इन प्रतिनिधियों के तौर पर कोई सरकारी बाबू, अधिकारी या फिर चहेते व्यक्ति हो सकते हैं। वैसे सरकार मंदिर मठों के व्यवस्था को लेकर पूरी तरह असंतुष्ट है। ऐसे में 15 जुलाई के बाद अनुशासनात्मक कार्यवाही भी होना है।

इसको बिहार के कानून और भूमि राजस्व मंत्रियों के तल्ख बयानों से समझा जा सकता है। यह फरमान गुरु पूर्णिमा और चातुर्मास पर्व के दिनों में आया है। यह हिंदू साधुओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है। जिसमें वे वर्षा ऋतु के महीनों में किसी बस्ती, ग्राम मे रुक कर साधना एवं स्वधर्म का प्रचार करते है। ऐसे में यह परेशानी का सबब है। बात बिहार की हो तो करीब साढ़े पांच हजार मठ निबंधित है। इनमें से करीब तीन सौ नियमित कर भी देते हैं।

बिहार सरकार के इस फैसले की वजह और परिणाम 
दरअसल, सरकार की सोच इसे पूरी तरह लागू कर बड़ी रकम उगाही की है। अभियान के प्रथम चरण मे ही करीब ढाई हजार नए मठ मंदिर सरकारी नियंत्रण में आने वाले हैं। आगे इसकी संख्या बढ़ भी सकती है। आखिर इसके क्या कारण हैं सोचे तो कई बातें ध्यान में आती है।

मसलन सरकारी अधिकारी एवं राजनेता इसके माध्यम से अपने कुटुंब और समर्थकों के लिए काफी कुछ कर सकते हैं। ऐसे उदाहरण देश भर में है। बिहार के एक पूर्व अधिकारी जो धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष भी रहे हैं। इनके पास अयोध्या से बिहार तक कई महत्वपूर्ण मठिय संपत्ति है, जिसका प्रबंधन इनका ट्रस्ट और व्यवस्थाएं परिवार के लोग देखते है।

वैसे बिहार मे समर्थक मतदाता को मठभूमि के पर्चे और आंध्र प्रदेश में ईसाई संस्थाओं को जमीन देने का पुराना चलन रहा है। जबकि ऐसे कामों के लिए सरकारें किसी गैर हिंदू धार्मिक संस्था की भूमि कभी नही लेती है। दरअसल इसके पीछे एक कलुषित मानस है। ये मठ मंदिर और उनके व्यवस्था परंपरा के विरोधी है। इसे कर्नाटक कांग्रेस के बयानों से भी समझा जा सकता है।

इधर, बात अगर मठ मंदिर के कोष एवं संपदा की हो तो ये आस्था से वशीभूत अनुयायियों के श्रद्धा का परिणाम है। जबकि इनके वृद्धि के पीछे का कारण धार्मिक निष्ठा का होना है। जिसे अतीत में जमींदार, राजा और व्यापारी वर्ग ने दान देकर संपन्न बनाया है। कई बार तो श्रद्धावान राजा अपनी संपूर्ण संपत्ति दान कर दास भाव से देवस्थानों की सेवा करते थे।

ऐसे उदाहरण केरल के त्रावणकोर से सुदूर पूर्व मणिपुर तक है। बात अगर इन देवालयों के प्रभाव वृद्धि की हो तो इसके पीछे सदैव से पुजारी और साधु, महंत वर्ग का योगदान रहा है। मठ मंदिरों के योगदान की सोचे ये उपासना स्थल सांस्कृतिक जागरण के केंद्र भी रहे हैं। जहां सबों को समान शिक्षा और संस्कार देने की व्यवस्थाएं थीं। यहां संगीत कला के संग स्वाबलंबन के उपक्रम भी चलते रहे हैं। ऐसी व्यवस्था सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त असम के मठों मे अब भी जारी है।

मठों की भूमिका और परंपरा 
अतीत में मठ अपने आश्रय, सामाजिक सुरक्षा, सेवा और सामूहिक – सामुदायिक खेती के लिए भी जाने जाते थे। इसके कई उदाहरण का जिक्र गांधीवादी इतिहासकार धर्मपाल ने अपनी पुस्तकों मे किया है। आधुनिक भारत के इस चर्चित इतिहास मर्मज्ञ ने अपने लेखनी का आधार ब्रिटिश दस्तावेजों को ही बनाया है। किंतु कुत्सित मानस लोगो के लिए तो यह सदियों से दकियानूसी विचार, भेदभाव और शोषण का स्थान रहा है। जबकि इसके उलट मस्जिद चर्च गुम्बा और गुरुद्वारे सेवा और सामाजिक सदभाव के जागृत केंद्र है।

दरअसल, ऐसे मानस के पीछे कुछ प्रतिगामी संगठन, तथाकथित प्रगतिशील लोग और प्रचार माध्यमों से गढ़ा नकारात्मक छवि है, जिसकी बानगी पेरियार के विचार और आश्रम जैसे हिंदी वेब सीरीज हैं। वैसे इस दुराग्रह के कारण ऐतिहासिक भी है। मंदिरों की अकूत धन पर ब्रिटिश सरकार की नजर भी रही है। अंग्रेजी शासन को मठों का सामाजिक प्रभाव सदैव  खटकता था।

जबकि इसी वर्ष धार्मिक संस्थाओं के नियंत्रण का भी कानून लाया गया था, जिसे 1927 और 1935 के संशोधनों द्वारा केवल हिंदुओं के दमन हेतु मजबूत बनाया गया।इसके अनुसार सरकार किसी भी हिंदू मठ मंदिर के अधिग्रहण हेतु स्वतंत्र थी। सबसे दुखद है की स्वतंत्र भारतीय सरकारों ने भी इसे जारी रखा। सन् 1950-51 के बीच कई राज्यों में संबंधित कानून पारित किए गए।इनमें मद्रास प्रेसिडेंसी से बने दक्षिण भारतीय राज्य पहले कुछके राज्यों में थे।

बिहार में तो यह सन् 1950 मे ही सामने था। अगले कुछेक वर्षों में राजस्थान से उड़ीसा तक की इसे लागू किया। जबकि इसी अवधि में गैर हिंदू संस्थाएं अल्पसंख्यक दर्जा ले कर फलती फूलती रही हैं। आज इन कानूनों के नाते हिंदू धर्म स्थानों पर मनमाना हस्तक्षेप बढ़ गया है। अधिग्रहित देवस्थानों के पुजारी कर्मचारी और न्यासी नियुक्ति में सरकारों की चलती है, वहीं निबंधन के साथ ही सरकारों सेवैत और महंतों को भी हटाने के लिए स्वतंत्र हैं।

ऐसे कई मामले है जिनमें मंदिरों में लंबी सेवा के बावजूद हिंदू पुजारी दैनिक वेतनभोगी हैं, वही मंदिर की व्यवस्था में लगे सेवादार और महंतों को धार्मिक व्यवस्था के निमित्त बेहद कम राशि उपलब्ध कराई जाती है। इस नाते उत्तर से दक्षिण भारत तक हजारों देवस्थान मिटने की कगार पर है। वहीं कई बार देवस्थानों का सेवा एवं प्रबंधन गैर हिंदू हाथों में भी होता है।

इधर कश्मीर घाटी के मंदिरों में गैर हिंदुओं पुजारियों की नियुक्ति का पुराना चलन रहा है। ऐसे कानूनी सीमाओं में मोहम्मद एआर अंतुले ने सिद्धिविनायक मंदिर का अधिग्रहण किया था। जबकि बिहार राज्य हिन्दू धार्मिक न्यास अध्यक्ष एक गैर हिंदू है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी लगाई है फटकार 

अगर इस पूरे मुद्दे को संविधान और न्यायिक आलोक में समझें तो मठ मंदिरों पर नियंत्रण अधिग्रहण का कानून कही से तर्क संगत नहीं है। यह संविधान के अनुच्छेद 25 एवं 26 का सीधा उल्लंघन है। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णय नजीर के तौर पर उपलब्ध है।

ऐसे में इसके समाप्ति हेतु कई सारे प्रयासों की जरूरत है। पूर्ण अधिग्रहण से वंचित मठ मंदिरों को अपने धार्मिक सामाजिक कार्यो को समाज के समक्ष रखना चाहिए, वहीं सेवा कार्य एवं सुविधा संबंधित व्यवस्थाओं को बढ़ाना भी चाहिए। इसके लिए संत महंत उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश और उत्तरपूर्वी राज्यों के अधिग्रहण मुक्त मठ मंदिरों का उदाहरण भी रख सकते हैं। जबकि सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र मे काम करने वाले व्यक्ति एवं संगठनों द्वारा मठ मंदिरों के योगदान महत्व और उनकी भूमिका को भी सर्वत्र रखने की जरूरत है।

इधर, इन देव स्थानों के सांस्कृतिक महत्ता से अवगत लोगो को इनसे संबंधित भ्रामक प्रचारों का भी खंडन करना चाहिए। मठ मंदिर ना तो केवल एक समुदाय विशेष का है और ना ही यहां पूजित देवता केवल वर्ग विशेष के है। हिंदू समाज में तो पुरातन देवताओं संग लोकदेवों और प्रकृति पूजन की भी परंपरा है। हजारों ऐसे देव स्थान है जहां कोई भी स्वयं से पूजा कर सकता है।

कई स्थानों पे पूजा का अधिकार केवल स्त्रियों को है वहीं कुछेक जगह पूरे रजस्वला काल में स्त्रियों का प्रवेश निषेध है। कहीं किसी खास समुदाय के पुरोहित हैं तो कहीं किसी खास परिवार या जाति के लोगों को विशेष अधिकार है।

बात बिहार जैसे राज्य की हो तो यहां के तमाम लोकदेव पिछड़े एवं दलित समाज के हैं। जबकि इनके देव स्थल की यात्रा और पूजा आयोजन में सहभागिता सभी बिरादरियों के हिंदू करते हैं।

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