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बिहार में उद्योग के लिए इन क्षेत्रों में संभावनाएं, हासिल हो सकती है समृद्धि

अगर यह सवाल है कि बिहार के किन किन क्षेत्रों में उद्योग की संभावना है? इसका बेहतर जवाब यह हो सकता है कि हर क्षेत्र में है। उलट कर यह सवाल भी पूछा जा सकता है कि वह कौन क्षेत्र है, जिसमें उद्योग की संभावना नहीं है। सबसे अधिक संभावना वाले किसी एक क्षेत्र की चर्चा करें तो वह कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्र है। अनाज, फल, सब्जी, दूध, मछली, गन्ना, जूट और चर्म उद्योग-ये सब ऐसे क्षेत्र हैं, जिनसे रुपया कमाने का गुर बिहारी समाज वर्षों से जानता है।

तकनीकी विकास के मौजूदा दौर से बहुत पहले लोग पीढिय़ों से अर्जित अनुभव के बल पर लोग इन उत्पादों से अपने लिए धन जुटाते रहे हैं। खुद के लिए और दूसरों के लिए भी रोजगार के अवसर सृजित करते रहे हैं। अब जबकि राज्य और केंद्र सरकार आर्थिक और तकनीकी मदद दे रही है, कृषि उत्पादों से धन और रोजगार पैदा करना आसान हो गया है। हां, इसके लिए इच्छाशक्ति की जरूरत है।

आज भी पटना में है बाटा का बड़ा कारखाना 

कृषि ऐसा क्षेत्र है, जिससे कई उद्योगों को कच्चा माल मिलता है। संयोग से राज्य में ऐसी फसलों और उससे जुड़े दूसरे कच्चे माल की बहुतायत है, जिनसे सूक्ष्म से लेकर लघु, मध्यम और बड़े उद्योग स्थापित हो सकते हैं। एक छोटा उदाहरण चर्म उद्योग का है। इसकी चर्चा इन दिनों नहीं हो रही है। राज्य में किसी समय स्थानीय स्तर पर चमड़े के जूते, चप्पल, हैंड बैग, बेल्ट आदि का निर्माण होता था। इस क्षेत्र में बाटा का बड़ा कारखाना आज भी है। लेकिन, गली-मोहल्लों के कुटीर उद्योग बंद हो रहे हैं। अब राज्य सरकार भी इसे बढ़ावा दे रही है। यह भी प्राथमिकता सूची में शामिल हो गया है।

दूसरे राज्‍यों में भेजी जाती है पशुओं की खाल

चर्म उद्योग विकास निगम बनाया गया था, लेकिन समय के साथ यह उद्योग तबाह हो गया। देश और विदेश के बड़े ब्रांड के चमड़े के उत्पाद बिहार के बाजार में आ गए। जानकर ताज्जुब होगा कि चर्म उद्योग के लिए बिहार आज भी दूसरे राज्यों को कच्चा माल देता है। राज्य में हर साल पशुओं के 50 लाख से अधिक खाल तैयार होते हैं। इसका बड़ा हिस्सा बाहर चला जाता है। अगर ये खाल राज्य में ही कच्चे माल के रूप में उपयोग में आ जाएं तो चर्म उद्योग की तस्वीर बदल जाएगी।

जूट उद्योग में बिहार के लिए संभावना

एक समय में बिहार की चर्चा उत्तम किस्म के जूट के लिए होती थी। कटिहार और समस्तीपुर में जूट के कारखाने थे। पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज और अररिया-इन चार जिलों में राज्य में कुल जूट का 70 प्रतिशत हिस्से का उत्पादन होता था। उत्तर बिहार के कई अन्य जिलों में भी जूट का उत्पादन होता था। इन जिलों के किसानों के लिए यह आय का बड़ा साधन था। आज पर्यावरण संकट के चलते प्लास्टिक के कई उत्पादों पर प्रतिबंध लग गया है। जूट के उत्पाद बाजार के लिए अपरिहार्य बन गए हैं। जूट के उत्पाद के लिए बड़े कारखानों की जरूरत नहीं है। कम पूंजी और कम जगह में भी इसके छोटे उद्योग लगाए जा सकते हैं। बाजार की तो कमी है ही नहीं।

गन्ना उद्योग में नए कारखानों की गुंजाइश 

गन्ने की खेती से उत्तर बिहार के लोग परिचित हैं। यह उस इलाके के लिए नकदी फसल है। एक समय देश के कुल गन्ना उत्पादन में बिहार का हिस्सा करीब साढ़े तीन प्रतिशत था। 1980 में राज्य में चीनी मिलों की संख्या 32 थीं। वह आज 10 रह गई हैं। नए कारखाने खोले जा सकते हैं। इसके अलावा खांडसारी उद्योगों को बढ़ावा देकर भी गन्ना उत्पादन को अधिक लाभकारी बनाया जा सकता है। राज्य सरकार मान रही है कि चीनी मिलों के उप उत्पाद के रूप में बिजली और एथनाल का उत्पादन हो सकता है। इन दोनों की मदद से तीसरे-चौथे उद्योग की आधारशिला रखी जा सकती है। अच्छी बात यह है कि चीनी मिलों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के उपाय किए जा रहे हैं।

हस्तकरघा उत्पादों को बढ़ावा

कम लागत से शुरू होने वाला हस्तकरघा उद्योग रोजगार की असीम संभावनाओं से भरा हुआ है। रेशमी, तसर रेशम, सूती, सजावटी कपड़े, चादर, लीनेन, तौलिया, गमछा, बेडशीट, कमीज, कोट, शाल, मफलर आदि का उत्पादन इस क्षेत्र में होता है। भागलपुर, बांका, गया, नालंदा, नवादा, मधुबनी, औरंगाबाद, रोहतास, कैमूर, पटना, सिवान, पूर्णिया, कटिहार एवं पश्चिम चंपारण को हस्तकरघा उत्पादन के सघन केंद्र के रूप में चिह्नित किया गया है। ये जिले बहुत पहले से हस्तकरघा उत्पादन के लिए जाने जाते हैं। बीच के वर्षों में इनकी हालत खराब हुई थी। अब यह बिहार सरकार की प्राथमिकता सूची में है। राज्य सरकार विभागीय खरीद में भी हस्तकरघा के उत्पाद को प्राथमिकता देती है। राज्य में उत्पादित रेशम का निर्यात भी होता है।

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