बिहार में पशुओं की बीमारी को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है –
- संक्रामक रोग
- सामान्य रोग
- परजीवी जन्य रोग
संक्रामक रोग
संक्रामक रोग एक मवेशी से अनेक मवेशियों में फ़ैल जाते हैं। ये संक्रामक बीमारियाँ आमतौर पर महामारी का रूप ले लेती है। संक्रामक रोग प्राय: विषाणुओं द्वारा फैलाये जाते हैं, लेकिन अलग-अलग रोग में इनके प्रसार के रास्ते अलग-अलग होते हैं। उदहारणत: खुरहा रोग के विषाणु बीमार पशु की लार से गिरते रहते हैं तथा पानी पीने के गौत के जरिए अनेक पशु इसके शिकार हो जाते हैं।
1. गलाघोंटू
- गाय-भैंस को ज्यादा परेशानी करती है। भेड़ तथा सुअरों को भी यह बीमारी लग जाती है। इसका प्रकोप ज्यादातर बरसात में होता है।
- शरीर का तापमान बढ़ जाता है और पशु सुस्त हो जाता है।
- रोगी पशु का गला सूज जाता है जिससे खाना निगलने में कठिनाई होती है। इसलिए पशु खाना-पीना छोड़ देता है।
- पशु को साँस लेने में तकलीफ होती है।
- बीमार पशु 6 से 24 घंटे के भीतर मर जाता है।
- पशु के मुंह से लार गिरती है।
- बरसात के पहले ही निरोधक का टिका लगवा कर मवेशी को सुरक्षित कर लेना लाभदायक है।
2. लंगड़िया रोग (ब्लैक क्वार्टर)
- ज्यादातर बरसात में फैलता है।
- यह खास कर छ: महीने से 18 महीने के स्वस्थ बछड़ों को ही अपना शिकार बनाता है।
- पशु लंगड़ाने लगता है।
- किसी किसी पशु का अगला पैर भी सूज जाता है। सूजन शरीर के दूसरे भाग में भी फ़ैल सकती है।
- सूजन में काफी पीड़ा होती है तथा उसे दबाने पर कूड़कूडाहट की आवाज होती है।
- बाद में सूजन सड़ जाती है। तथा उस स्थान पर सड़ा हुआ घाव हो जाता है।
- शरीर का तापमान 104 से 106 डिग्री रहता है।
- बरसात के पहले सभी स्वस्थ पशुओं को इस रोग का निरोधक टिका लगवा देना चाहिए।
3. गिल्टी रोग (एंथ्रेक्स)
- बहुत ही भयंकर जीवाणुओं से फैलने वाला रोग है।
- भयानक संक्रामक रोग है। इस रोग से आक्रांत पशु की शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है।
- तेज बुखार 106 डिग्री से 107 डिग्री तक।
- रोग का गंभीर रूप आने पर नाक, पेशाब और पैखाना के रास्ते खून बहने लगता है।
- आक्रांत पशु शरीर के विभिन्न अंगों पर सूजन आ जाती है।
- पेट फूल जाता है।
- इस रोग के जीवाणु चारे-पानी तथा घाव के रास्ते पशु के शरीर में प्रवेश करते है और शीघ्र ही खून (रक्त) के अंदर फैल रक्त को दूषित कर देते हैं।
- समय रहते पशुओं को टिका लगवा देने पर पशु के बीमार होने का खतरा नहीं रहता है।
4 .खुरहा (फूट एंड माउथ डिजीज़)
- इसका संक्रामण बहुत तेजी से होता है।
- यद्यपि इससे आक्रांत पशु के मरने की संभावना बहुत ही कम रहती है तथापि इस रोग से पशु पालकों को को काफी नुकसान होता है क्योंकि पशु कमजोर हो जाता है तथा उसकी कार्यक्षमता और उत्पादन काफी दिनों तक के लिए कम हो जाता है।
- यह बीमारी गाय, बैल और भैंस के अलावा भेड़ों को भी अपना शिकार बनाती है।
- इस रोग से पीड़ित पशु के पैर से खुर तक तथा मुंह में छालों का होना, पशु का लंगडाना व मुहं से लगातार लार टपकाना आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण होते हैं।
5. यक्ष्मा (टी. बी.)
- पशुओं का संसर्ग में रहने वाले या दूध इस्तेमाल करने वाले मनुष्य को भी अपने चपेट में ले सकता है।
- पशु कमजोर और सुस्त हो जाता है। कभी-कभी नाक से खून निकलता है, सूखी खाँसी भी हो सकती है। खाने के रुचि कम हो जाती है तथा उसके फेफड़ों में सूजन हो जाती है।
- एकदम अलग रखने का इंतजाम करें। यह एक असाध्य रोग है।
6. थनैल
- दुधारू मवेशियों को यह रोग दो कारणों से होता है। पहला कारण है थन पर चोट लगना या था का काट जाना और दूसरा कारण है संक्रामक जीवाणुओं का थन में प्रवेश कर जाता।
- पशु को गंदे दलदली स्थान पर बांधने तथा दूहने वाले की असावधानी के कारण थन में जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं।
- अनियमित रूप से दूध दूहना भी थनैल रोग को निमंत्रण देना है साधारणत: अधिक दूध देने वाली गाय-भैंस इसका शिकार बनती है।
- थन गर्म और लाल हो जाना, उसमें सूजन होना, शरीर का तापमान बढ़ जाना, भूख न लगना, दूध का उत्पादन कम हो जाना, दूध का रंग बदल जाना तथा दूध में जमावट हो जाना इस रोग के खास लक्षण हैं।
सामान्य रोग
कुछ सामान्य रोग, पशुओं की उत्पादन-क्षमता कम कर देते है। ये रोग ज्यादा भयानक नहीं होते, लेकिन समय पर इलाज नहीं कराने पर काफी खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं।
1. अफरा
- हरा और रसीला चारा, भींगा चारा या दलहनी चारा अधिक मात्रा में खा लेने के कारण पशु को अफरा की बीमारी हो जाती है। खासकर, रसदार चारा जल्दी – जल्दी खाकर अधिक मात्रा में पीने से यह बीमारी पैदा होती है।
- बाछा-बाछी को ज्यादा दूध पी लेने के कारण भी यह बीमारी हो सकती है।
- पाचन शक्ति कमजोर हो जाने पर मवेशी को इस बीमारी से ग्रसित होने की आशंका अधिक होती है।
- एकाएक पेट फूल जाता है।
- पीछे के पैरों को बार पटकता है।
2. ज्वर
- पशु बेचैन हो जाता है।
- पशु कांपने और लड़खड़ाने लगता है। मांसपेसियों में कंपन होता है, जिसके कारण पशु खड़ा रहने में असमर्थ रहता है।
- पलके झूकी – झूकी और आंखे निस्तेज सी दिखाई देती है।
- मुंह सूख होता है।
- तापमान सामान्य रहता है या उससे कम हो जाता है।
3. दस्त और मरोड़
- इस रोग के दो कारण हैं – अचानक ठंडा लग जाना और पेट में किटाणुओं का होना। इसमें आंत में सुजन हो जाती है।
- पशु को पतला और पानी जैसे दस्त होता है।
4. निमोनिया
- पानी में लगातार भींगते रहने या सर्दी के मौसम में खुले स्थान में बांधे जाने वाले मवेशी को निमोनिया रोग हो जाता है।
- शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
- सांस लेने में कठिनाई होती है।
- नाक से पानी बहता है।
- भूख कम हो जाती है।
5. घाव
- पशुओं को घाव हो जाना आम बात है।
- चरने के लिए बाड़ा तपने के सिलसिले में तार, काँटों या झड़ी से काटकर अथवा किसी दुसरे प्रकार की चोट लग जाने से मवेशी को घाव हो जाता है।
- हाल का फाल लग जाने से भी बैल को घाव हो जाता है और किसानों की खेती-बारी चौपट हो जाती है।
- बैल के कंधों पर पालों की रगड़ से भी सूजन और घाव हो जाता है।
परजीवी जन्य रोग
1. नाभि रोग
- खास कर कम उम्र के बछड़ों को परेशान करते हैं।
- नाभि के आस – पास सूजन हो जाती है, जिसको छूने पर रोगी बछड़े को दर्द होता है।
- बाद में सूजा हुआ स्थान मुलायम हो जाता है तथा उस स्थान को दबाने से खून मिला हुआ पीव निकलता है।
- बछड़ा सुस्त हो जाता है।
- हल्का बुखार रहता है।
2. कब्जियत
- बछड़ों के पैदा होने के बाद अगर मल नहीं निकले तो कब्जियत हो सकती है।
3. सफ़ेद दस्त
- यह रोग बछड़ों को जन्म से तीन सप्ताह के अंदर तक हो सकता है।
- यह छोटे- छोटे किटाणु के कारण होता है।
- गंदे बथान में रहने वाले बछड़े या कमजोर बछड़े इस रोग का शिकार बनते हैं।
- बछड़ों का पिछला भाग दस्त से लथ-पथ रहता है।
- बछड़ा सुस्त हो जाता है।
- खाना – पीना छोड़ देता है।
- शरीर का तापमान कम हो जाता है।
- आंखे अदंर की ओर धंस जाती है।
4. रतौंधी
- साधारणत: बछड़ों को ही होता है।
- संध्या होने के बाद से सूरज निकलने के पहले तक रोग ग्रस्त बछड़ा करीब-करीब अँधा बना रहता है।
- फलत: उसने अपना चारा खा सकने में भी कठिनाई होती है।
- दुसरे बछड़ों या पशु से टकराव भी हो जाता है।
5. लीवर फ्लूक बीमारी (घेघा रोग)
- लीवर फ्लूक बीमारी (घेघा रोग) से गाय, बकरी व भैंस के बच्चों की मौत होती है.
- मरने वाले पशुओं में सबसे अधिक संख्या गाय की है. इसके बाद बकरी और भैंस के बच्चे को यह बीमारी ग्रसित करती है.
- बीमारी का प्रकोप बाढ़ग्रस्त और नदी किनारे वाले इलाके में रहता है.
- बाढ़ के बाद हरा चारा खाने से यह रोग फैलता है.
- बाढ़ का पानी कम होने और बारिश थमने के बाद बीमारी में कुछ कमी आती है.
- पशुओं में भूख में कमी, पशुओं का कमजोर होना, गर्दन का फूलना, कुछ दिन बाद फिर कम होना, फिर फूलना, शौच पतला होना, दूध देना बंद कर देना आदि इस बीमारी के लक्षण हैं.
- यह बीमारी काफी घातक है. पहले गर्दन फूलता है. इसे गंभीरता से नहीं लेने पर 15 से 20 दिन में पशु काफी कमजोर हो जाता है. उसका लीवर कमजोर होने लगता है. पशु सुस्त और कमजोर होता है. सही इलाज नहीं होने पर उसकी मौत हो जाती है.
- शुरुआती लक्षण दिखने पर ही पशुपालक को पशु चिकित्सालय पहुंच कर डॉक्टर से उचित सलाह लेना चाहिए.
पशुओं के लिए साफ-सुथरा और हवादार घर-बथान, सन्तुलित खान-पान तथा उचित देख भाल का इंतजाम करने पर उनके रोगग्रस्त होने का खतरा किसी हद तक टल जाता है। रोगों का प्रकोप कमजोर मवेशियों पर ज्यादा होता है। उनकी खुराक ठीक रखने पर उनके भीतर रोगों से बचाव करने की ताकत पैदा हो जाती है।