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अपराध के समाजशास्त्रीय सिद्धांत (Sociological Theory of Crime)

समाजशास्त्रीय अपराधिक प्रमाणवाद के अनुसार सामाजिक घटनाएं उतनी ही वास्तविक होती हैं जितना कि मनुष्य का व्यवहार और भौतिक तत्व जो मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व को प्रभावित करते हैं। अर्थात भौतिक तत्व मनुष्य के मन पर प्रभाव डालते हैं और वे सामाजिक घटनाओं के घटने का कारण बनते हैं।
मनुष्य अपने अच्छे कर्मों और बुरे कर्मो दोनों के लिए उत्तरदाई होता है। वह अपनी बुद्धि, ज्ञान, मानसिक सोच और परिस्थितियों के अनुसार कार्य करता है। इस प्रकार मनुष्य कुसमायोजन के लिए भी उत्तरदाई होते हैं
जिसके परिणाम स्वरूप कभी-कभी मनुष्य सामाजिक व्यवस्था व मान्यता विपरीत कृत्य कर बैठता है जो कि अपराध के रूप में परिभाषित होती है।

इमाइल दुर्खीम का “एनोमी” का सिद्धांत:

बीसवीं शताब्दी के शुरू में सर्वप्रथम इमाइल दुर्खीम (1856-1917) ने समाजशास्त्रीय प्रमाणवाद के अपराध शास्त्री के रूप में “एनोमी” (anoime) की अवधारणा को विकसित किया था। दुर्खीम के अनुसार एनोमी की परिस्थिति लक्ष्यों पर निरंतर टूट जाने के कारण उत्पन्न होता है।जब व्यक्ति की आकांक्षाएं असीमित हो जाती हैं और पूर्ति हेतु व्यक्ति के व्यवहार पर निरंतर दबाव डालती हैं तब एनोमी की वह स्थिति उत्पन्न होती है जिसमें समाज के सामूहिक नियम व्यक्ति की क्रियाओं को नियंत्रित करने में असफल हो जाते हैं। बेचैन व्यक्ति समाज के व्यवस्था उपकरणों की चिंता ना कर के सामाजिक मानदंडों के विपरीत व्यवहार करता है जो कि अपराध की संज्ञा में आता है।

रोबोट के मर्टन द्वारा विकसित एनोमी का सिद्धांत:

मर्टन ने इस सिद्धांत के अनुसार कहा कि “अपराध सांस्कृतिक रूप से निर्धारित लक्ष्य और इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु समाज द्वारा अनुमोदित साधनों के बीच उत्पन्न विनियोजन का परिणाम है।”
समाज की संरचना में सांस्कृतिक लक्ष्य मनुष्य को दिए जाते हैं। “एनोमी” की स्थिति लक्ष्य और उनकी प्राप्ति के लिए उपलब्ध वैध साधनों के संबंध टूटने के कारण उत्पन्न होता है। आपराधिक व्यवहार सामाजिक परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया मात्र है। इस तरह मर्टन ने “विचलित व्यवहार” के विवेचन में व्यक्ति की जैविकीय मूल प्रवृत्तियों को कोई महत्व ना देकर अपराध की व्याख्या में व्यक्ति को केंद्र बिंदु मानते हुए सामाजिक व्यवस्था को ही महत्व दिया है। हालांकि एक पक्षीय है।

एडमिन सदरलैंड द्वारा विकसित विभिन्न संपर्क सिद्धांत:

सदरलैंड ने 1939 में अपराध का सहचार्य सिद्धांत प्रतिपादित किया। यह सिद्धांत “अपराध क्यों” होता है प्रश्न से शुरू होता है और इसका उत्तर सदरलैंड “अपराधिक व्यवहार को सीखने की प्रक्रिया में ही खोजते हैं। सदरलैंड ने यह माना है कि हर समुदाय में दो प्रकार के समूह पाए जाते हैं-
पहला, अपराध करने के लिए संगठित किए गए समूह। दूसरा, अपराध रोकने के लिए किए गए संगठित समूह। इस प्रकार प्रत्येक समुदाय में अपराध की मात्रा विभिन्न सामूहिक संगठन के विभिन्न अभिव्यक्ति पर निर्भर करता है।

Ananya Swaraj,
Assistant Professor, Sociology

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