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ग्रामीण समाजशास्त्र की अवधारणा (Concept of Rural Sociology)

मानव समाज के विकास में समाज के मुख्यतः तीन स्तर सामने आते हैं।
1.जनजातीय स्तर
2.ग्रामीण स्तर
3.नगरीय स्तर

यह तीनों स्तर समाज में रहकर तीन प्रकार के समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन सभी समाजों की अपनी अपनी विशेषताएं हैं। अपनी-अपनी कार्यपद्धती है। अपना विशिष्ट पर्यावरण है और इनका अपना सामाजिक संबंधों का जाल है। यह तीनों समाज एक दूसरे से भिन्न है। इन तीनों समाजों में ग्रामीण समाज सार्वभौमिक समुदाय की विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ग्रामीण समाज की अपनी संस्कृति आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक ढांचा है। समाजशास्त्र की एक शाखा ग्रामीण ढांचे का अध्ययन करती है जिसे हम ग्रामीण शास्त्र की संज्ञा देते हैं। अतः यह एक विशिष्ट समाजशास्त्र है।

ग्रामीण समाजशास्त्र की परिभाषा

डेविड एंडरसन के अनुसार “ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण पर्यावरण में पाए जाने वाले जीवन का समाजशास्त्र है विनाश की उत्पत्ति एवं विकास को समझे हुए अधिकांश तक इस विषय पर ग्रामीण जीवन का विवरण प्राया सामान्य रूप से दे दिया जाता है।”

ए.आर. देसाई के अनुसार “ग्रामीण समाजशास्त्र का मूल उद्देश्य ग्रामीण सामाजिक संगठन उनकी संरचना प्रक्रियाओं और विकास की वस्तुनिष्ठ प्रवृत्ति का एक वैज्ञानिक व्यवस्थित और विस्तृत अध्ययन करना है तथा इस अध्ययन के आधार पर ही उनके विकास के नियमों को ज्ञात करना होना चाहिए।”

ग्रामीण समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य:

डॉ. जॉन एम. गिलट के अनुसार, “ग्रामीण समाजशास्त्र का एक बड़ा कार्य, जो शायद सदैव बना रहेगा, कृषि करने वाले समुदायों के जीवन की सहानुभूति पूर्ण जानकारी प्राप्त करना तथा उनके प्रति सामाजिक प्रयास के विवेकपूर्ण सिद्धांतों को लागू करना ही है। यदि ग्रामीण समाजशास्त्र ग्रामीण जीवन की समस्याओं को समझने और उन्हें विवेकपूर्ण ढंग से सुलझाने के उद्देश्य को पूर्ण कर देता है, यह वैज्ञानिक बन जाएगा, किंतु अपनी सीमित व तत्कालिक दायरे के कारण सामान्य समाजशास्त्र से प्रातः भिन्न रूप में रहेगा।”

Ananya Swaraj
Assistant Professor , Sociology

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